Sunday, 24 April 2011

ज्ञान-यज्ञ इस युग का महानतम अभियान



                                                मनुष्य की मूल शक्ति विचारणा है । उसी के आधार पर इतनी प्रगति कर सकना उसके लिए सम्भव हुआ है । समस्याएँ विचारों की विकृति से उत्पन्न होती हैं और उनका समाधान दृष्टिकोण बदलने से निकलता है । सचमुच जो जैसा सोचता है, वह वैसा ही बनकर रहता है । सोचने की दिशा में ही क्रिया बनती है और उसी की परिणति परिस्थितियों के रूप में सामने आती है । परिस्थितियों का अपने आप में कोई स्वतंत्र आधार नहीं है । वे हमारे कर्तृत्‍व का परिणाम मात्र हैं । इसी प्रकार कर्तृत्‍व भी अपने आप नहीं बन जाता है, विचारों की प्रेरणा ही हमारी कार्य पद्धति के लिये पूरी तरह उत्तरदायी होती है । इस तथ्य को समझ लेने पर ही आज की मानवीय समस्याओं का कारण और निवारण ठीक तरह समझा जा सकता है । 
खेद है कि अब तक इस प्रकार का चिन्तन नहीं के बराबर हुआ है जो हुआ है उसको महत्त्व नहीं दिया गया । हमारे मूर्धन्य व्यक्ति इतना भर सोचते रहे है कि शासनतंत्र के माध्यम से सुविधा-साधन बढ़ा देने से मनुष्य सुखी रहने लगेगा और अपनी उलझनें सुलझा लेगा । पर देखते है कि वह मान्यताएँ गलत सिद्ध होती चली जा रही हैं । शासन तंत्र को सुधारने के लिये जितने हाथ-पैर पीटे जाते हैं उतनी ही उससे विकृतियॉं उत्पन्न होती चली जा रही हैं । अर्थ-तंत्र से नि:संन्देह कई प्रकार की सुविधाएँ उत्पन्न की हैं पर परिणाम उलटा ही रहा है । तथाकथित प्रगति की जड़ें बिलकुल खोखली हैं, किसी भी धक्के में वह लडख़ड़ा सकती है । स्थायी प्रगति और सुदृढ़ समर्थता के लिए चरित्र बल होना चाहिए और वह उत्कृष्ट विचारणा की भूमि पर ही उग सकता है । 
ज्ञान-यज्ञ देखने-सुनने में छोटी बात लगती है, पर उसकी सम्भावनाएँ उतनी विशाल हैं कि यदि ठीक तरह इस अभियान को चलाया जा सका तो विश्वास है कि लोक-मानस में विवेकशीलता और सत्प्रवृत्तियों की गहरी स्थापना सम्भव हो सकेगी और नये युग के अवतरण का स्वप्न साकार किया जा सकेगा ।


युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-66 (4.46)

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