Sunday 1 May 2011

नारी का वर्चस्व- विश्व का उत्कर्ष

                                                     नर और नारी यों दोनों ही भगवान की दायीं-बायीं ऑंख, दायीं बायीं भुजा के समान हैं । उनका स्तर, मूल्य, उपयोग, कर्त्तव्‍य, अधिकार पूर्णत: समान है । फिर भी उनमें भावनात्मक दृष्टि से कुछ भौतिक विशेषताएँ हैं । नर की प्रकृति में परिश्रम, उपार्जन, संघर्ष, कठोरता जैसे गुणों की विशेषता है वह बुद्धि और कर्म प्रधान है । नारी में कला, लज्जा, शालीनता, स्नेह, ममता जैसे सद्गुण हैं वह भाव और सृजन प्रधान है । यह दोनों ही गुण अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण हैं । उनका समन्वय ही एक पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण करता है ।
                                                  सामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नर और नारी की इन विशेषताओं का उपयोग किया जाता है । युद्ध कौशल में पुरुष की प्रकृति ही उपयुक्त थी सो उसे आगे रहना पड़ा । जो वर्ग आगे रहता है, नेतृत्व भी उसी के हाथ में आ जाता है । जो वर्ग पीछे रहते हैं उन्हें अनुगमन करना पड़ता हैं । परिस्थितियों ने नर-नारी के समान स्तर को छोटा-बड़ा कर दिया, पुरुष को प्रभुता मिली - नारी उसकी अनुचरी बन गई । जहॉं प्रेम सद्भाव की स्थिति थी वहॉं वह उस आधार पर हुआ और जहॉं दबाव और विवश्सता की स्थिति थी वहाँ दमन पूर्वक किया गया । दोनों ही परिस्थितियों में पुरुष आगे रहा और नारी पीछे ।
                                                  नये युग के लिये हमें नई नारी का सृजन करना होगा, जो विश्व के भावनात्मक क्षेत्र को अपने मजबूत हाथों में सम्‍भाल सके और अपनी स्वाभाविक महत्ता का लाभ समस्त संसार को देकर नारकीय दावानल में जलने वाले कोटि-कोटि नर-पशुओं को नर-नारायण के रूप में परिणत करना सम्भव करके दिखा सकें । नारी के उत्कर्ष - वर्चस्व को बढ़ाकर उसे नेतृत्व का उत्तरदायित्व जैसे-जैसे सौंपा जायेगा वैसे-वैसे विश्व शान्ति की घड़ी निकट आती जायेगी ।

Friday 29 April 2011

सजीव प्रचारक




                                        बुरे आदमी बुराई के सक्रिय सजीव प्रचारक होते हैं । वे अपने आचरणों द्वारा बुराईयों की शिक्षा लोगों को देते हैं । उनकी कथनी और करनी एक होती है। जहाँ भी ऐसा सामंजस्य होगा उसका प्रभाव अवश्य पड़ेगा । कुछ लोग धर्म-प्रचार का कार्य करते हैं पर वह सब कहने भर की बातें होती हैं । इन प्रचारकों की कथनी और करनी में अन्तर रहता है । यह अन्तर जहाँ भी रहेगा वहाँ प्रभाव क्षणिक ही रहेगा । सच्चे धर्म प्रचारक जिनकी कथनी और करनी एक रही है अपने अगणित अनुयायी बनाने में समर्थ हुए हैं । बुद्ध, गाँधी, तिलक, कबीर, नानक आदि की कथनी और करनी एक थी, वे अपने आदर्शों के प्रति सच्चे थे, इसलिए अगणित व्यक्ति उनका अनुकरण करने वाले, उनके आदर्शों पर बड़े से बड़ा त्याग करने वाले, प्रस्तुत हो गये थे । 


आज अच्छाइयों एवं आदर्शों के सच्चे एवं सजीव प्रचारक नहीं हैं और बुराइयों के सजीव आस्थावान प्रचारक हर जगह मौजूद हैं, वे बुरे काम करते हैं, बुराइयाँ सिखाते हैं, पर ऐसे धर्म प्रचारक कहाँ हैं जो अपने आचरणों से दूसरों को शिक्षा और प्रेरणा प्रदान करें । जहाँ थोड़े बहुत सच्‍चे लोग हैं वहाँ प्रभाव भी पड़ रहा है । हजारों मील से आकर विदेशी ईसाई मिशनरी भारत में ईसाई धर्म का प्रचार पूरी आस्‍था और लगन के सा‍थ कर रहें हैं फलस्‍वरूप गत वर्षों में ही लाखों की संख्‍या में लोगों ने हिन्‍दु धर्म का परित्‍याग कर ईसाई धर्म की दीक्षा ली ।

Thursday 28 April 2011

दुष्कर्मों के दण्ड से प्रायश्चित्त ही छुड़ा सकेगा




                                     यह ठीक है कि जिस व्यक्ति के साथ अनाचार बरता गया अब उस घटना को बिना हुई नहीं बनाया जा सकता । सम्भव है कि वह व्यक्ति अन्यत्र चला गया हो । ऐसी दशा में उसी आहत व्यक्ति की उसी रूप में क्षति पूर्ति करना सम्भव नहीं । किन्तु दूसरा मार्ग खुला है । हर व्यक्ति समाज का अंग है । व्यक्ति को पहुँचाई गई क्षति वस्तुत: प्रकारान्तर से समाज की ही क्षति है । उस व्यक्ति को हमने दुष्कर्मों से जितनी क्षति पहुँचाई है उसकी पूर्ति तभी होगी जब हम उतने ही वजन के सत्कर्म करके समाज को लाभ पहुँचाये । समाज को इस प्रकार हानि और लाभ का बैलेन्स जब बराबर हो जायेगा तभी यह कहा जायेगा कि पाप का प्रायश्चित हो गया और आत्मग्लानि एवं आत्मप्रताडऩा से छुटकारा पाने की स्थिति बन गई ।


सस्ते मूल्य के कर्मकाण्ड करके पापों के फल से छुटकारा पा सकना सर्वथा असम्भव है । स्वाध्याय, सत्संग, कथा, कीर्तन, तीर्थ, व्रत आदि से चित्त में शुद्धता की वृद्धि होना और भविष्य में पाप वृत्तियों पर अंकुश लगाने की बात समझ में आती है । धर्म कृत्यों से पाप नाश के जो माहात्मय शास्त्रों में बताये गये हैं उनका तात्पर्य इतना ही है कि मनोभूमि का शोधन होने से भविष्य में बन सकने वाले पापों की सम्भावना का नाश हो जाये ।


ईश्वरीय कठोर न्याय व्यवस्था में ऐसा ही विधान है कि पाप परिणामों की आग में जल मरने से जिन्हें बचना हो वे समाज की उत्कृष्टता बढ़ाने की सेवा-साधना में संलग्न हों और लदे हुए भार से छुटकारा प्राप्त कर शान्ति एवं पवित्रता की स्थिति उपलब्ध कर लें ।

युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (६.१८

Sunday 24 April 2011

ज्ञान-यज्ञ इस युग का महानतम अभियान



                                                मनुष्य की मूल शक्ति विचारणा है । उसी के आधार पर इतनी प्रगति कर सकना उसके लिए सम्भव हुआ है । समस्याएँ विचारों की विकृति से उत्पन्न होती हैं और उनका समाधान दृष्टिकोण बदलने से निकलता है । सचमुच जो जैसा सोचता है, वह वैसा ही बनकर रहता है । सोचने की दिशा में ही क्रिया बनती है और उसी की परिणति परिस्थितियों के रूप में सामने आती है । परिस्थितियों का अपने आप में कोई स्वतंत्र आधार नहीं है । वे हमारे कर्तृत्‍व का परिणाम मात्र हैं । इसी प्रकार कर्तृत्‍व भी अपने आप नहीं बन जाता है, विचारों की प्रेरणा ही हमारी कार्य पद्धति के लिये पूरी तरह उत्तरदायी होती है । इस तथ्य को समझ लेने पर ही आज की मानवीय समस्याओं का कारण और निवारण ठीक तरह समझा जा सकता है । 
खेद है कि अब तक इस प्रकार का चिन्तन नहीं के बराबर हुआ है जो हुआ है उसको महत्त्व नहीं दिया गया । हमारे मूर्धन्य व्यक्ति इतना भर सोचते रहे है कि शासनतंत्र के माध्यम से सुविधा-साधन बढ़ा देने से मनुष्य सुखी रहने लगेगा और अपनी उलझनें सुलझा लेगा । पर देखते है कि वह मान्यताएँ गलत सिद्ध होती चली जा रही हैं । शासन तंत्र को सुधारने के लिये जितने हाथ-पैर पीटे जाते हैं उतनी ही उससे विकृतियॉं उत्पन्न होती चली जा रही हैं । अर्थ-तंत्र से नि:संन्देह कई प्रकार की सुविधाएँ उत्पन्न की हैं पर परिणाम उलटा ही रहा है । तथाकथित प्रगति की जड़ें बिलकुल खोखली हैं, किसी भी धक्के में वह लडख़ड़ा सकती है । स्थायी प्रगति और सुदृढ़ समर्थता के लिए चरित्र बल होना चाहिए और वह उत्कृष्ट विचारणा की भूमि पर ही उग सकता है । 
ज्ञान-यज्ञ देखने-सुनने में छोटी बात लगती है, पर उसकी सम्भावनाएँ उतनी विशाल हैं कि यदि ठीक तरह इस अभियान को चलाया जा सका तो विश्वास है कि लोक-मानस में विवेकशीलता और सत्प्रवृत्तियों की गहरी स्थापना सम्भव हो सकेगी और नये युग के अवतरण का स्वप्न साकार किया जा सकेगा ।


युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-66 (4.46)

Monday 18 April 2011

सम्पत्ति ही नहीं सदबुद्धि भी




                                                   सुख-सुविधा की साधन-सामग्री बढ़ाकर संसार में सुख-शान्ति और प्रगति होने की बात सोची जा रही है और उसी के लिए सब कुछ किया जा रहा है पर साथ ही हमें यह भी सोच लेना चाहिए कि समृद्धि तभी उपयोगी हो सकती है जब उसके साथ-साथ भावनात्मक स्तर भी ऊँचा उठता चले।  यदि भावनाएँ निकृष्ट स्तर की रहें तो बढ़ी हुई सम्पत्ति उलटी विपत्ति का रूप धारण कर लेती है । दुर्बुद्धिग्रस्त मनुष्य अधिक धन पाकर उसका उपयोग अपने दोष-दुर्गुण बढ़ाने में ही करते हैं । अन्न का दुर्भिक्ष पड़ जाने पर लोग पत्ते और छालें खाकर जीवित रह लेते हैं पर भावनाओं का दुर्भिक्ष पडऩे पर यहॉँ नारकीय व्यथा-वेदनाओं के अतिरिक्त और कुछ शेष नहीं रहता ।
                                                   सम्पन्न लोगों का जीवन निर्धनों की अपेक्षा कलुषित होता है,  उसके विपरीत प्राचीनकाल में ऋषियों ने अपने जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करके यह सिद्ध किया था कि गरीबी की जीवन व्यवस्था में भी उत्कृष्ट जीवन जीना संभव हो सकता है । यहाँ सम्पन्नता एवं समृद्धि का विरोध नहीं किया जा रहा है, हमारा प्रयोजन केवल इतना ही है भावना स्तर ऊँचा उठने के साथ-साथ समृद्धि बढ़ेगी तो उसका सदुपयोग होगा और तभी उससे व्यक्ति एवं समाज की सुख-शान्ति बढ़ेगी । भावना स्तर की उपेक्षा करके यदि सम्पत्ति पर ही जोर दिया जाता रहा तो दुर्गुणी लोग उस बढ़ोत्तरी का उपयोग विनाश के लिए ही करेंगे । बन्दर के हाथ में गई हुई तलवार किसी का क्या हित साधन कर सकेगी ?
                                                                                                     युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (३.३३)

Thursday 14 April 2011

देश तेरे लिए



इतिहास के पन्ने उलटते वक्त,
    कभी- कभी सोचता हूँ कि कैसे-कैसे,
          उन लूटेरों ने, अँग्रेजों ने
              लूटा होगा , छलनी किया होगा
                  हमारे देश की जनता को,
                     हमारी संस्कृति को , सभ्यता को ,
                       हमारी धरोहर को ।
                         मन में अजीब से चित्र घुमने लगते हैं ।
                               मन-ही-मन उन्हें गालियाँ देता हूँ
                                   और फिर सो जाता हूँ,
                                     चैन की नींद ,
                                      कि चलो अब तो हम आजाद हैं ।
                                               -----------------------------------------
                                            और अगली ही सुबह,
                                        अखबार में देखता हूँ -
                                     आतंक के साये में डर-डर के जीते लोग,
                                   भ्रष्ट नेताओं की चाल में बलि चढती भोली-भाली जनता,
                              आधे पेट खाकर जीवन-यापन करता परिवार,
                           अपनी ही हालत पे रोते सरकारी दफ़्तर,
                        अस्पताल और ना जाने कितने समस्याओं से जूझता अपना राष्ट्र ।
                    मन में फिर सवाल उठता है ,
                क्या हम सचमुच आजाद हैं ?
            फिर मुँह से भद्दी गालियाँ निकलती हैं ,
        उन भ्रष्ट नेताओं के लिये , आतंकवादियों के लिये ।
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पर क्यों , किसलिए ?
मैं क्यों उनसे इतनी घृणा करता हूँ ?
उनने जो कुछ भी किया ,
अपने स्वार्थवश अथवा अज्ञानवश |
पर मैनें क्या किया
अपने देश के लिए ?
कहीं मैं भी तो जिम्मेवार नहीं ,
इन सब के लिए ?
फिर से वही प्रश्न
और मैं उलझ पड़ता हूँ, अपने-आप से ।
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मुझे कोई अधिकार नहीं ,
किसी से घृणा करने का।
मुझे घृणा है ,
तो अपने आप से , अपनी मूकदर्शिता से ,
अपनी अकर्मण्यता से
अपनी उस खुद की बनाई हुई मजबूरी से ,
जो मुझे कुछ करने नहीं देता,
अपने स्व से उठकर ।
उस मोह से , उस बंधन से ,
जो मुझे सीमित करता है ,
अपने-आप तक , अपने परिवार तक ।
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लेकिन फिर, अगर ये ही मेरा पूरा सच है ,
तो मन में इतनी उथल-पुथल क्यों ?
इतनी घुटन क्यों?ये उबाल क्यों ?
संभवतः ये संकेत हैं ,
कि मेरा भावनाएँ अभी मरी नहीं ,
सुसुप्त भले ही हैं ।
मानो जागने के लिए इंतजार हो,
किसी क्षण-विशेष का ।
जब ये सीमाएँ टूटेंगी ,
जब कोई मोह नहीं ,
कोई बंधन नहीं बस एक जूनून ,
कि मिटा दूँगा हर उस छोटी - बड़ी शक्ति को,
जो छीनती है हमसे  हमारी आजादी , हमारा चैन ।
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इसलिए ,
हे देश के भ्रष्ट-स्वार्थी नेताओं ,
हमारी अमन-शांति छीनने वाले आतंकवादियों ,
और हमारी तरक्की से जलने वाले राष्ट्रों
चेतो ।
हमारे भीतर की उबाल को
कम मत आँको ।
क्योंकि इनमें इतनी ऊर्जा है ,
कि ये सुनामी बनकर ,
महलों को भी मिट्टी में परिणत कर  सकती है ।

बिना अध्यात्म के प्रोफ़ेशनलिजम

चिंतन चरित्र है अशुद्ध, पुष्पित बस व्यवहार .
   मुंह पर लल्लो चप्पो, पीछे घातक वार..

 निज को नहीं जीत सके, दुहरा ब्यक्तित्व.
    काम क्रोध लोभ मोह, मद विकार अस्तित्व..


 अध्यात्म बिन अपूर्ण है, दुनिया भर प्रबंधन.
    निज जीवन अव्यवस्थित, नशे का अवलंबन..

 सफलता का पैमाना, भी है बड़ी अजीब.
    दूजे का गला काटना, इस राह में ठीक !..

विष घुली मीठी बोली, करती महीन मार.
   बन्दा सुन न पाए, अन्दर का चीत्कार..

मौका तलाश में फिरे, ज्यों घायल शेर.
   दिन रात षडयंत्र में, दहशत की अंधेर..

 कुचक्र में जीवन बीती, सफलता चाह अडिग.
   शीशा बाज चोंच तोडी, व्यक्तित्व संदिग्ध..

नरपशु और नरपिशाच

      मन बुड्ढा भोगी बना, फिर भी ना      अघाय.
    जैसे सूअर कीचड में, लथपथ हो सुख पाय..

             नर-पशु की भरमार है, सीमित इनके काम.
             खाना डरना सोना व, वासनाएं तमाम..

     लोकसेवा का क्षेत्र हो या, मालिक की दूकान.
     वासना नाच दिखाए, ओढ़ सेवा परिधान..

             वासना सेवत थक चुके, दूजे सेवा की आड़.
             वासना कब अघाती, इसकी छाती फाड़ ?..

     झूठी शान लिए ढूंढे, वासना का आहार.
     पॉलिसी बन पड़ी बस, मौके की हथियार.

             स्वार्थ जब टकराई, तब देखो कोलाहल !.

            दो नर-पशु लड़ भिडे, लहूलुहान और घायल..

      दूजे का हक़ छीनकर, भया एक बल साढ़.
      बेवजह बल प्रयोग करे, रह रह दे हुंकार..

              नर-पशु से भी बड़ी पद, नर-पिशाच की चाहत.
             मसान मानव रक्त चखा, खून की ही जरूरत..

      नर-पशु की कमजोरी पर, जीते नर-पिशाच.
      लाठी वाले की भैंस व, मछली न्याय अब साँच..

             तुच्छ स्वार्थ के पीछे, सैकड़ों करे कुर्बान.
             मरघट का प्रेत बना, घूमे सीना तान..

      हजारों दिल का खून पी, हो चला मदमस्त.
      इसी में तो जायका है ?, बन्दा अब अभ्यस्त..

           इन्द्रिय राह छोड़ कर, कई गुना सुख उभार.
           भीतरी अजर स्रोत से, स्थायी सुख अपार.